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Wednesday, April 16, 2014

लोकतंत्र में परिवारवाद

आज वरुण गांधी ने अपना नामांकन सुल्तानपुर से किया।  नामांकन करने के तुरंत बाद उन्होंने अपनी बहन प्रियंका के आरोपों का जवाब दिया। इन भाई-बहन के वाद-विवाद को सुन कर मन में यह प्रश्न उठा की परिवारवाद से राजनैतिक पार्टियो का फायदा हुआ है या नुकसान। सवाल जितना आसान है जवाब उतना ही मुश्किल।

बात भारत की हो रही है पर परिवारवाद भारत की उपज नहीं है। अमरीका का केनेडी परिवार, पडोसी पाकिस्तान का भुट्टो परिवार, उत्तर कोरिया का किम परिवार। अगर सूचि बनाने लगे तो अनगिनत परिवारवाद के उदाहरण मिल जाएंगे।

भारत में परिवारवाद की नीव रखने का श्रेय जाता है नेहरू-गांधी परिवार को। आज़ादी के बाद के लगभग ६० साल के राज में से ३५ साल सत्ता इसी परिवार के हाथ में रही है। अन्य राजनैतिक पार्टिया चाहे कांग्रेस के खिलाफ क्यों न हो पर एक चीज़ तो सभी ने कांग्रेस से सीख ली - परिवारवाद। अगर वामपंथी दलों को छोड़ दे तो शायद ऐसी कोई पार्टी न मिले जिसमे परिवारवाद की जड़े न फैली हो।

  • कांग्रेस - नेहरू-गांधी परिवार, हुड्डा परिवार
  • बी जे पी - राजनाथ परिवार, सिंधिया परिवार, जसवंत सिंह (पूर्व सदस्य)
  • स पा - मुलायम सिंह यादव परिवार (यू पी)
  • अकाली दल - बादल परिवार (पंजाब)
  • इ ने लो - चौटाला परिवार (हरियाणा)
  • लो ज पा - पासवान परिवार (बिहार)
  • जे के एन सी - अब्दुल्ला परिवार (कश्मीर)
  • एन सी पी -  पवार परिवार (महाराष्ट्र)
  • शिव सेना - ठाकरे परिवार (महाराष्ट्र)
  • बी ज द - पटनायक परिवार (ओडिसा)
  • रा ज द - लालू प्रसाद यादव परिवार (बिहार)
  • टी डी पी - एन टी आर परिवार (आंध्र प्रदेश)
  • वाय एस आर कांग्रेस - वाय एस आर परिवार (आंध्र प्रदेश)
  • डी एम के - करूणानिधि परिवार (तमिल नाडु)
  • आप - राजमोहन गांधी (सांकेतिक रूप से)

सवाल यह उठता है की क्या राजनैतिक पार्टी बिना परिवार के नहीं चल सकती? या परिवार बिना पार्टी के नहीं चल सकते?
कांग्रेस की बात की जाये तो लगता है की बिना गांधी परिवार के कांग्रेस बिखर जाएगी। ऐसा हुआ भी है जब इंदिरा राजनीती में सक्रिय नहीं हुई थी और जब राजीव के जाने के बाद सीताराम केसरी अध्यक्ष पद संभल रहे थे। ऐसे वक़्त में हर कोंग्रेसी अध्यक्ष या प्रधान मंत्री बन जाना चाहता है। पर जैसे ही कोई गांधी आ जाता है सारे कोंग्रेसी उसकी सत्ता को स्वीकार कर लेते है और आजीवन उनके निचे काम करने को तैयार हो जाते है।
बी जे पी में परिवारवाद को खूब भुनाया गया है। परन्तु कभी बिना परिवार के बिखरती हुई नहीं दिखाई दि। इसका कारण है की बी जे पी के पीछे एक बहुत बड़ा परिवार काम कर रहा है - संघ परिवर। बी जे पी के द्वारा जुटाई गयी शक्ति का असली भोगी यह संघ परिवार है। बी जे पी के अन्य परिवार तो क्षेत्रीय लाभ ही भोग पाते है।
अन्य पार्टिया जैसे स पा, लो ज पा, जे के एन सी, शिव सेना, बी ज द, रा ज द, टी डी पी, वाय एस आर कांग्रेस, डी एम के सिर्फ एक ही परिवार के आधीन रही है और रहेंगी । इन पार्टियो का परिवार से पहले अस्तित्व ना था और ना ही परिवार के बाद रहने की सम्भावना है।

सवाल यह भी उठता है की परिवारवाद में क्या बुराई है, बाप की दुकान अगर बेटा नहीं संभालेगा तो कौन संभालेगा?
इस सवाल का जवाब भी सवाल में ही है। समस्या यही है की कुछ परिवारवादी लोगो ने इस देश की राजनीती को दुकान समझ लिया है। जबकि राजनीती में योग्यता के आधार पर स्थान मिलना चाहिए न की जन्म के आधार पर। इसमें अपवाद के तौर पर अगर कोई योग्य संतान हो तभी उसे स्थान देना चहिये। भारत के मतदाताओं को यह समझ लेना चाहिए की राजनीती में योग्यता सर्वप्रथम आती है। अगर हम आज अयोग्य संतानो को चुन रहे है तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी भी स्तिथि सीरिया जैसी होंगी। सीरिया में वंशवादी बशर अल-असद अपने पिता के बाद राष्ट्रपति बने। वहाँ राष्ट्रपति बनने की योग्यता को ४० वर्ष से बदल कर ३४ वर्ष सिर्फ इसलिए कर दिया गया ताकि उस समय ३४ वर्ष के बशर आसानी से राष्ट्रपति बन सके।

परिवारवाद के लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं है। परन्तु विडंबना देखिये की जो पार्टिया लोकतंत्र को सुरक्षित रखने का दवा कर रही है वे सभी परिवारवाद में फांसी हुई है।

हिंदी में ये मेरा पहला लेख है इसलिए त्रुटियों के लिए माफ़ी चाहता हूँ।

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